Sengol Kya Hai, भारत की आजादी के सात दशकों के बाद नए भारतीय संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी जी के द्वारा किया गया, इस नए सांसद भवन के उद्घाटन के समय एक नई परंपरा की भी शुरुआत की गई, जिसके अनुसार एक दंड (सेंगोल) की भी स्थापना की गई।
सेंगोल न सिर्फ हमारे लिए सत्ता का प्रतीक है बल्कि ये यह भी दर्शाता है कि हम अभी भी अपनी पुरानी परंपराओं को जीवित रखे हुए है।
Hello Dosto, स्वागत है आपका हमरे ब्लॉग पर आज हम बात करने जा रहे है सेंगोल के बारे में… Sengol Kya Hai, इसका इतिहास और महत्व के बारे में बात करेंगे।
Sengol Kya Hai –
भारत के नए संसद भवन में, 28 मई 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थापित किया, यह राजदंड सत्ता के हस्तान्तरण और न्यायपूर्ण शाशन का प्रतीक माना जाता है।
आसान शब्दों में कहें तो सेंगोल एक तरह की लंबी सी छड़ी है जो कि विशेष धातु यानि चांदी का बना होता है और इसे ऊपर सोने की परत चढ़ी हुई है, जिसे राजदंड के नाम से भी जाना जाता है, इस राजदंड पर कई सारी जानकारियाँ और आकृतियाँ बनी होती है जिनका कुछ न कुछ महत्व है, इसके बारे में हम आगे बात करेंगे।
यह एक सत्ता या राजा के बाद दूसरे राजा या सत्ता के हस्तान्तरण के समय नए राजा या चुने हुए व्यक्ति को दिया जाता है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि उस नए पद पर बैठने वाला व्यक्ति न्यायपूर्ण शाशन करेगा।
अगर इतिहास में देखें तो सेंगोल का इतिहास चोल साम्राज्य से जुड़ा है, 1947 में धार्मिक मठ – अधीनम के प्रतिनिधि ने सैंगोल भारत गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया था, इसके बाद इसे इलाहाबाद संग्रहालय में रख दिया गया।
इस तरह के राजदंड के प्रयोग के उल्लेख रामायण-महाभारत के कथा प्रसंगों में भी उत्तराधिकार सौंपे जाने के समय के जिक्र मिलते रहे हैं
पौराणिक कथाओं में राजतिलक होना, राजमुकुट पहनाना सत्ता सौंपने के प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल होता दिखता है, लेकिन इसी के साथ राजा को धातु की एक छड़ी भी सौंपी जाती थी, जिसे राजदंड कहा जाता था।
इसका एक उल्लेख महाभारत में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के दौरान देखने को मिलता है, जहां शांतिपर्व में इसकी बात करते हुए कहा जाता है कि ‘राजदंड राजा का धर्म है, दंड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है।’
राज्यअभिषेक के समय राजा जब गद्दी पर बैठता है तो तीन बार ‘अदण्ड्योः अस्मि’ कहता है, तब राजपुरोहित उसे पलाश दंड से मारता हुआ कहता है कि ‘धर्मदण्ड्योः असि’।
यहाँ पर राजा के कहने का तात्पर्य होता है, उसे दंडित नहीं किया जा सकता है, ऐसा वह अपने हाथ में एक दंड लेकर कहता है. यानि यह दंड राजा को सजा देने का अधिकार देता है।
लेकिन इसके ठीक बाद पुरोहित जब यह कहता है कि, धर्मदंडयोः असि, यानि राजा को भी धर्म दंडित कर सकता है, ऐसा कहते हुए वह राजा को राजदंड सौंपता है, कुल मिलकर यह कहें कि राजदंड, राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने के प्रतीक के रूप में जाना जाता रहा है, तो गलत नहीं होगा।
सेंगोल शब्द का प्रयोग –
सेंगोल शब्द का पहली बार प्रयोग अलग अलग जगहों पर देखने को मिलता है, कहीं पर इसकी उत्पत्ति तमिल भाषा के शब्द ‘सेम्मई’ से बताई गई है।
सेम्मई का अर्थ होता है ‘नीतिपरायणता’, यानि सेंगोल को धारण करने वाले पर यह विश्वास किया जाता है कि वह राज्य के नीतियों और नियमों का पालन करेगा, यही राजदंड कहलाता था, जो राजा को न्याय सम्मत दंड देने का अधिकारी बनाता था।
प्राचीन काल में ऐतिहासिक परंपरा के अनुसार, राज्याभिषेक के समय, राजा के गुरु के नए शासक को औपचारिक तोर पर राजदंड उन्हें सौंपा करते थे।
सेंगोल का इतिहास –
प्राचीन काल में भारत में जब राजा का राज्याभिषेक किया जाता था, तो विधिपूर्वक राज्याभिषेक हो जाने के बाद राजा राजदण्ड लेकर राजसिंहासन पर बैठते थे।
राजसिंहासन पर बैठने के बाद वह कहता था कि अब मैं राजा बन गया हूँ अदण्ड्योऽस्मि, अदण्ड्योस्मि, अदण्ड्योऽ (मैं अदण्ड्य हूँ, मैं अदण्ड्य हूँ); अर्थात मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता।
इस समय नए राजा के पास लँगोटी पहने हुए एक संन्यासी खड़ा रहता था और उसके हाथ में एक छोटा, पतला सा पलाश का डण्डा रहता था।
वह उस पतले से डंडे से राजा पर तीन बार प्रहार करते हुए उसे कहता था कि ‘राजा! अदण्ड्योऽस्मि अदण्ड्योऽस्मि ऐसा कहनागलत है, दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि अर्थात तुझे भी दण्डित किया जा सकता है।
इसके अलावा चोल काल के दौरान ऐसे ही राजदंड का प्रयोग सत्ता हस्तान्तरण को दर्शाने के लिए किया जाता था, उस समय राज्यअभिषेक के दौरान पुराना राजा नए राजा को राजदंड सौंपता था।
राज्यअभिषेक के समय राजदंड सौंपने के दौरान 7वीं शताब्दी के तमिल संत संबंध स्वामी द्वारा रचित एक विशेष गीत भी गाए जाने की परंपरा थी।
हालांकि इसके अलावा कुछ इतिहासकार मौर्य, गुप्त वंश और विजयनगर साम्राज्य में भी सेंगोल को प्रयोग किए जाने की बात कहते हैं।
सेंगोल के प्राचीन इतिहास के बारे में हमने ऊपर बात की… लेकिन अगर इसके सबसे नए इतिहास के बारे में बात करें तो भारत की आजादी के दौरान वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक सवाल किया कि, “ब्रिटिश से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में किस समारोह का पालन किया जाना ठीक रहेगा” (ऐसा कहा जाता है) इस प्रश्न ने नेहरू को वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी (राजाजी) से परामर्श करने की प्रेरणा दी।
सी राजगोपालाचारी जी ने चोल काल में प्रचलित समारोह का प्रस्ताव दिया जहां एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता का हस्तांतरण उच्च पुरोहितों की उपस्थिति में पवित्रता और आशीर्वाद के साथ पूरा किया जाता था।
इसके साथ ही सी राजगोपालाचारी जी ने तमिलनाडु के तंजावुर जिले में शैव संप्रदाय के धार्मिक मठ – तिरुवावटुतुरै आतीनम् से संपर्क किया।
तिरुवावटुतुरै आतीनम् मठ 500 वर्ष से अधिक पुराना है और यह मठ पूरे तमिलनाडु में 50 मठों को संचालित करता है, यही पर अधीनम के नेता ने तुरंत पांच फीट लंबाई के ‘सेंगोल’ को तैयार करने के लिए चेन्नई में सुनार वुम्मिदी बंगारू चेट्टी को जिम्मेदारी दी।
सेंगोल तैयार करके, वुम्मिदी बंगारू चेट्टी ने इसे अधीनम के प्रतिनिधि को सौंपा और अधीनम के नेता ने वह सैंगोल पहले लॉर्ड माउंटबेटन को दे दिया
फिर उनसे लेकर 15 अगस्त की तारीख 1947 के शुरू होने से ठीक 15 मिनट पहले स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह राजदंड सौंपा गया, जो यह दर्शाता है कि अब भारत की सत्ता एक व्यति से दूसरे व्यक्ति के पास चली गई है।
इस विषय पर एक लोकप्रिय पुस्तक “फ्रीडम एट मिडनाइट” में, लेखकों ने उल्लेख किया है कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर, दो हिंदू संन्यासी एक प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू को स्वर्ण राजदंड, ‘सेंगोल’ सौंपा था।
सेंगोल का बहिष्कार –
सेंगोल की स्थापना वर्तमान में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के द्वारा की गई है, लेकिन उनके इस कदम का कांग्रेस समेत कई सारे दलों ने बहिष्कार किया है।
प्रधानमंत्री के इस कदम के खिलाफ विपक्षी दल कांग्रेस समेत 19 पार्टियों ने संयुक्त बयान जारी कर नई संसद के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने की घोषणा की।
हालांकि इन 19 पार्टियों में बीएसपी, बीजेडी, टीडीपी, वाईएसआरसीपी, एआईएडीएमके, पीडीपी, बीआरएस शामिल नहीं है।
अनुच्छेद 79 का हवाला देते हुए विपक्षी पार्टियों का यह कहना है कि राष्ट्रपति न केवल भारत में राज्य का प्रमुख होता है, बल्कि संसद का एक अभिन्न अंग भी होता है, राष्ट्रपति मुर्मू के बिना नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्णय एक अशोभनीय कृत्य है जो राष्ट्रपति के उच्च पद का अपमान है।
और ऐसा करना संविधान के पाठ और भावना का भी उल्लंघन है “जब लोकतंत्र की आत्मा को संसद से निष्कासित कर दिया गया है, तो हमें नई इमारत में कोई मूल्य नहीं दिखता।” जिसके बाद कुछ पार्टियों ने इस समारोह में हिस्सा लिया कुछ पार्टियों ने इस समारोह से दूरी बना के रखी।
Summary –
सेंगोल न सिर्फ हमारे लिए सत्ता का प्रतीक है बल्कि ये यह भी दर्शाता है कि हम अभी भी अपनी पुरानी परंपराओं को जीवित रखे हुए है।
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