यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है, इसका महत्व, फायदे और नुकसान

Uniform Civil Code Kya Hai, वैसे तो भारत में रहने वाले सभी लोगों के लिए एक समान नियम है लेकिन कुछ कानून ऐसे भी है जिनको खत्म करने की मांग पिछले कई सालों से की जा रही है।

जो लोग ऐसा छह रहे है उसङ्के हिसाब से ऐसे कानून लोगों के मौलिक अधिकारों तथा अन्य कानूनों का उल्लंघन करते है, इसलिए इसे खत्म करने के लिए एकसमान नागरिक संहिता लागू की जाए।

Hello Friends, स्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर आज हम बात करने जा रहे है, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड के बारे में, Uniform Civil Code Kya Hai, इसके क्या मैने है, इसे क्यों लागू किया जाना चाहिए।

Uniform Civil Code Kya Hai –

यूनिफॉर्म सिविल कोड (Uniform Civil Code) को हिंदी में समान नागरिक संहिता कहा जाता है, शॉर्ट फॉर्म में इसे UCC के नाम से जाना जाता है।

UCC एक सामाजिक मामलों से संबंधित कानून होता है जो सभी पंथ के लोगों के लिये विवाह, तलाक, भरण-पोषण, विरासत व बच्चा गोद लेने आदि में समान रूप से लागू होता है।

दूसरे शब्दों में अगर कहा जाए तो, अलग-अलग पंथों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही ‘समान नागरिक संहिता’ की मूल उद्देश्य है।

भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में स्पष्ट रूप से ‘समान नागरिक संहिता’ शब्द का उल्लेख किया गया है, अनुच्छेद 44 के अनुसार, “राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।” जिससे कि सभी लोगों के लिए एकसामान कानून हो।

uniform civil code kya hai in hindi

यूनिफॉर्म सिविल कोड किसी भी पंथ जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है, वर्तमान में (इसके लागू होने से पहले) हर धर्म में भारतीय कानून तो लागू होते है लेकिन कुछ नियम कानून ऐसे भी है जो हर धर्म के हिसाब से अलग-अलग लागू होते है।

अभी के समय में, विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून उनके धार्मिक ग्रंथों द्वारा शासित होते हैं, जैसे – इस्लाम में शरिया कानून, ईसाइयों के लिए बाइबिल इत्यादि।

यूनिफॉर्म सिविल कोड भारत में नागरिकों के लिए एक समान कानून को बनाने और लागू करने का एक प्रस्ताव है, जो उनके धर्म, लिंग और यौन इच्छा की परवाह किए बिना एकसमान रूप से सभी के ऊपर लागू होगा।

यह कानूनी प्रस्ताव भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, रूढ़िवादी धार्मिक समूहों और संप्रदायों द्वारा, धार्मिक रीति रिवाज की रक्षा के संबंध में एक विवादित विषय बना हुआ है।

UCC, भारतीय जनता पार्टी के द्वारा किये गए चुनावी वादों में से एक है, बीजेपी ने, एक देश एक कानून के लक्ष्य को लेकर इसे लागू करने की घोषणा की थी, जिसके बाद से यह चर्चा में है।

ध्यान रखने वाली बात यह है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25-28 भारतीय नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है और धार्मिक समूहों को अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन अपने धार्मिक ग्रंथों के अनुसार करने की इजाजत देता है।

UCC का इतिहास –

पहली बार व्यक्तिगत कानून, ब्रिटिश शाशन के दौरान मुख्य रूप से हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के लिए बनाए गए थे, उस समय अंग्रेजों को समुदाय (कम्युनिटी) के नेताओं के विरोध का डर था और इसलिए वे इस घरेलू क्षेत्र में आगे हस्तक्षेप करना नहीं चाहते थे।

एकसमान नागरिक संहिता को पहली बार गोवा में लागू किया गया, अंग्रेजों के शाशन के समय गोवा पुर्तगाल के औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत आता था।

यहाँ पर एक समान पारिवारिक कानून जिसे गोवा नागरिक संहिता के रूप में जाना जाता था, इस प्रकार गोवा आज तक समान नागरिक संहिता वाला भारत का एकमात्र राज्य बना।

आजादी मिलने के बाद हिंदू कोड बिल पेश किया गया, जिसने बौद्ध, हिंदू, जैन और सिख जैसे भारतीय धर्मों के विभिन्न संप्रदायों में बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करने के साथ उसमें सुधार किया गया।

हालांकि इसमें ईसाइयों, यहूदियों, मुसलमानों और पारसियों को छूट दी गई, जिसे हिंदुओं से अलग समुदायों के रूप में पहचाना गया।

अनुच्छेद 44 क्या है? –

अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से मेल खाता है जिसमें कहा गया है कि राज्य अपने नागरिकों के लिए पूरे भारत में एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) प्रदान करने का प्रयास करेगा।

आजादी के बाद के कुछ दशकों में कई ऐसे केस आए है जब यह लगने लगा कि पूरे भारत में सभी के लिए एकसमान कानून लाए जाएं।

शाह बानो केस –

73 वर्षीय एक मुस्लिम महिला, जिनका नाम शाह बानो था, उनके पति ने उन्हें तीन बार तलाक बोलकर उन्हें तलाक दे दिया और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया।

बाद में शाह बानो ने कोर्ट की शरण ली बाद में जिला न्यायालय और फिर उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया, कि उन्हें गुजारा भत्ता मिलना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में अखिल भारतीय आपराधिक संहिता के “पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण” प्रावधान (धारा 125) के तहत शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया।

यह कानून किसी भी धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों पर लागू होता था, इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि पूरे देश में एकसमान कानून बनाए जाएं।

मामले से जुड़े तथ्य –

मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत गुजारा भत्ता केवल इद्दत की अवधि यानि तीन चंद्र मास-लगभग 90 दिन तक ही देना होता था, जबकि सीआरपीसी (आपराधिक प्रक्रिया संहिता) की धारा 125 जो सभी नागरिकों पर लागू होती है, पत्नी के भरण-पोषण का प्रावधान करती है।

इस तरह से हम देखते है कि जहां धार्मिक कानून किसी केस में अलग तरीके से लागू होते है तो वहीं भारतीय कानून अलग तरीके से।

इस फैसले का असर यह हुआ कि देशभर में चर्चाएं, बैठकें और आंदोलन हुए जिसके दबाव में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर सुरक्षा का अधिकार) अधिनियम (एमडब्ल्यूए) पारित किया, उस समय तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने इस दबाव के कारण एक कानून “मुस्लिम महिला तलाक पर संरक्षण अधिकार अधिनियम 1986” को लागू किया।

डेनियल लतीफ़ी केस –

मुस्लिम महिला अधिनियम (एमडब्ल्यूए) को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता के अधिकार के साथ-साथ अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कानून को संवैधानिक मानते हुए इसे सीआरपीसी की धारा 125 के साथ सुसंगत बनाया। और यह माना गया कि इद्दत अवधि के दौरान पत्नी को मिलने वाली राशि इतनी बड़ी होनी चाहिए कि वह इद्दत के दौरान उसका भरण-पोषण कर सके और साथ ही उसके भविष्य को भी प्रदान कर सके।

इस प्रकार देश के कानून के तहत, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला जीवन भर या पुनर्विवाह होने तक भरण-पोषण के प्रावधान की हकदार है।

सरला मुद्गल मामला –

सरला मुद्गल मामले में प्रमुख सवाल यह था कि क्या हिंदू कानून के तहत इस्लाम अपनाकर शादी करने वाला हिंदू पति मुस्लिम बनने के बाद दूसरी शादी कर सकता है।

अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि हिंदू कानून के तहत संपन्न हिंदू विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत निर्दिष्ट किसी भी आधार पर ही भंग किया जा सकता है।

किसी व्यक्ति के इस्लाम में धर्मांतरण और दोबारा शादी करने से, अधिनियम के तहत हिंदू विवाह अपने आप में भंग नहीं होगा और इस प्रकार, ए इस्लाम कबूल करने के बाद की गई दूसरी शादी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 494 के तहत अपराध होगी, जिसके तहत तय सजा का हकदार वह व्यक्ति होगा।

जॉन वल्लामट्टम केस –

जॉन वल्लामट्टम केस में, केरल के एक पुजारी, जॉन वल्लामट्टम ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी, यह कानून भारत में गैर-हिंदुओं के लिए कार्य करता है।

श्री वल्लामटन ने यह तर्क दिया कि इस अधिनियम की धारा 118 ईसाइयों के खिलाफ भेदभावपूर्ण थी क्योंकि यह वसीयत द्वारा धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति के दान पर अनुचित प्रतिबंध लगाती है, तथा बाद में पीठ ने इस धारा को असंवैधानिक करार दे दिया।

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